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‘बहू’ और ‘तवा……

Anshu Gupta
Anshu Gupta
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वो नयी नवेली दुल्हन जब ससुराल आई थी
सास ने रसोई की बागडोर उसे ही थमाई थी
और उसके साथ थमाया था एक ‘तवा’
जो बहू अपने दहेज़ में लायी थी………….

बहू की किस्मत का नया था मोड़
एक ‘शराबी’ पति से हुआ था गठजोड़
जो कमाता कम ‘उडाता’ ज्यादा था
इसलिए घर को लगा था ‘तंगी’ का कोड़………

फिर भी …बहू पति को प्यार से… समझाती
और रोज धीमे हाथो से तवा….चमकाती
पर कुछ न बदला….. और क्या हो गया ?
बहू ‘कल मुहि’ और ‘तवा’
‘स्याह’ हो गया…………………

‘जिम्मेदारियों’ और ‘तंगी’ ने झट से बहू की
उम्र बड़ा दी
बहू पर ‘बदसूरती’ और ‘तवे’ पर
‘कालिख’ चड़ा दी………………

रोज पति पत्नी
सास बहू के झगडे होने लगे
सब रिश्ते अपनी कीमत खोने लगे……..
अब बहू की छोटी गलती भी सास माफ़
नहीं करती…………………………..
और बहू …..बिना ‘ईट’ घिसे तवा साफ नहीं करती……………

खुबसूरत जिन्दगी का हर सपना
‘खाक’ कर दिया…………………..
‘कलह’ ने बहू की आत्मा में
और बहू ने तवे को घिस घिस कर ‘सुराख़’ कर दिया…………………..

एक दिन-घिसते घिसते
तवा टूट गया…..मगर कालिख नहीं निकली…..
और बहू की स्याह तकदीर कभी नहीं बदली……………

उसी रात बहू ने अपना हर दर्द मिटा लिया
रसोई में चुपके से खुद को जला दिया
अगली सुबह मोह्हला घर में झाक रहा था
कभी आँगन में पड़ी ‘अधजली बहू’ और कभी ‘अधजले’
तवे को ‘ताक’ रहा था……………………

जिंदगी की आंच me दोनों जल गए
वक़्त से हार कर …मिटटी में मिलगये……..
कुछ नहीं बदलेगा….. कल इतिहास खुद को फिर दोहराएगा
घर के लिए नयी ‘बहू’
और बहू के लिए नया ‘तवा’ आजायेगा…………………………….

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