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दुबका लो मुझ को
फिर से तुम अपने अंचल में…………..
बाहर की दुनिया में जाते मम्मी
मुझ को डर लगता है…………………
खेलूगी घर में ही गुडिया
कोने में चुप चाप अकेली
न कोई साथी न संगी
न कोई अब संग सहेली
घर के बाहर लुक्का -छिपी
खेलने जाते डर लगता है…………………..
रोटी,चौका,चूल्हा,बर्तन
अब से मुझ को भी सिखलाओ
रहने दो देहरी के भीतर
स्कूल का रस्ता न बतलाओ……………..
पगडण्डी पर तनहा जाते
मम्मी मुझ को डर लगता है………………….
हर पल सोंचू मै मन में
क्यों हुई ‘कन्या’ से ‘युवती’
सडको,नुक्कड़,गलियारों में
मुझ को लोगो आंखे चुभती………
खुद को सुन्दर कहलाने में
मम्मी मुझ को डर लगता है……………….
एक वर खोजो
और जल्दी से अब तुम मेरा ब्याह करादो
अपने आँचल की छाया से
साजन के आंगन पंहुचा दो………
खुद को अनब्याही दिखलाने में
मम्मी मुझ को डर लगता है……………
फिर माँ बोली
मैंभी डरती हूँ ,कैसे तुझ को पालूगी
कदम कदम पर हैवानो से
कब तक तुझे बचालूगी……………
इसलिए अब हर माँ को
‘बेटी’ जन्माने में डर लगता है………………………..
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