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रोज वक़्त ,बेवक्त मिलती रोटी
की आस मे……..।
तरसती ,तड़पती ..अपनों से
प्यार और सम्मान की प्यास मे…..।
वो माँ जो अतृप्त थी …..।
हर धड़कन हर स्वास मे…..
आज उसकी आत्मिक मुक्ति के लिए
जीवन की अधूरी ….तृप्ति के लिए
बेटा करा रहा माँ का
भव्य श्राद्ध………।
खिला रहा है जी भर के ‘माँ’ को
लेकिन मरने के बाद……।
आखिर क्यो?
जीते जी रखते है हम
उन्हे उनके अधिकारो से वंचित…..।
वो माली ही सूख जाते है
तिरस्कार की धूप मे
जिनहोने किया हमे संचित……।
क्या कुछ दिनो का पित्र पक्ष
श्राद्ध या
सौ -सौ ब्राह्मणो का भोज…।
धो सकता है उन पापो को
जो किए हमने रोज……।
सच तो है ये!
हम उनकी नहीं अपनी
आत्मिक शांति का प्रयास कर रहे है..।
अपने ही पूर्व कर्मो के प्रतिफल
से डर रहे है……..।
वरना जितनों ने एक दिन मे खाया है
माँ एक बरस मे न खा पाती
तू रोज कुछ पल उसे भी देता तो
तेरी माँ सच मे ‘तृप्त’
होकर जाती……….।
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